Saturday, September 19, 2015

प्रथम दृष्टि प्रथम स्वर

आज मैंने
आसाम की गारो पहाड़ियों के विहँगों को
जैसलमेर की मरुभूमि में देखे
और देखा !

फूलों की घाटी में कैक्टस का नृत्य

अमराई में
उगते हुये कीकर  के पौधे
आज सुना मैंने
कोकिल का करुण स्वर

कामाख्या देवी के मंदिर में
मिमियाते हुये मेमनों का क्रन्दन
जिनका मॉस
किलो के भाव बिक रहा था
पहाड़ी के नीचे नगर की वीथियों पर

कुछ देखने , कुछ सुनने का

आज मेरा पहला दिन था  ../

                                                                                           .........राजीव " सांकृत्यायन"

Sunday, December 1, 2013

"समर्पण"

असीम,सीमाओ में
अव्यक्त, परिभाषाओ में
व्यक्त
कैसे करू

निरपेक्ष, निरासक्त, निर्विघ्न यथार्थ
अब नहीं बुद्धि कि पृष्टभूमि पर
लेखनी का आघात ,
सत्य का शून्यवत प्रवाह
प्राण का संचार अदृस्य, अथाह

बस ,
तर्कहीन यही विकल्प

'अतिविराट अतिअल्प'

  'अतिविराट अतिअल्प ' 
                                                                                     ........राजीव  सांकृत्यायन

Sunday, October 13, 2013



'अनाम नाम '

किसी का कोई नाम नहीं
क्यों की सब
'वो' है

और 'उसका' नाम रखने वाला कोई नहीं ,
नाम नाटक के पात्रों का है
"राम", "श्याम" ,"बुद्ध","महावीर","जीसस "
और बहुत से
'अनाम',
हम अभिनय ही देख सकते हैं
और अभिनय ही समझ सकते हैं

और समझ सकते हैं , मात्र 'नाम'

'अनाम' हमारी पकड़ से दूर
क्यों की 'वो'
इतने निकट है /

.....................................................................................................राजीव " सांकृत्यायन"

Saturday, October 12, 2013

विमल



" विमल "

सूर्य रश्मि पर चढ़ कर आयी
चंचल शीतल प्रेम लालिमा
मेघों के झुरमुट ने रोकी
राह, दिखा घनघॊर कालिमा

रोके नहीं रुकी किरणे जब
विलख पड़ी मेघों की छाया
आज बड़े दिन बाद कोई
मेघों को चीर धरा पर आया

आया लिए सलोनी प्यारी
मृगतृष्णा से भरी सुराही
राह निहारे बैठ अकेला
राजीव बन जीवन रही

राजीव " सांकृत्यायन"

Friday, September 27, 2013

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रचना
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शब्द पार्थिव सो रहा है
कुछ सहमकर 'सत्य ' कैसे रो रहा है

आशपूरित लालिमा अब कालिमा है
यह चतुर्दिक हो रहा है

है नहीं कुछ प्रकट !
है नहीं कुछ प्रकट !

हा तमारस व्याप्त घन में करुण क्रंदन विकट
 
कुछ थके से पद निरंतर बढ़ रहे हैं
'शुन्य पर गढ़ रहे हैं "
'शुन्य पर गढ़ रहे हैं "


-------------------------------------------------राजीव " सांकृत्यायन"

 



Sunday, August 4, 2013

Tuesday, October 25, 2011


संजय उवाच

तुम परमाणु संरचना में
भटके हुए
इलेक्ट्रोन हो ,

या हो

ठहरे हुए पानी की सतह पर
तैरते हुए शैवाल ,

जिन्हें मात्र
" मज्झिम निकाय " की
भाषा आती है

जो भटकते है
अंतरिक्ष की धूल के सदृश

दिशाहीन ..........................

उस प्रगाढ़ रहस्य का
एक छोटा सा अंग बनकर
जो स्वयं में
एकरहस्यहोता है /

..........राजीव " सांकृत्यायन"