Friday, September 18, 2009

क्रत्रिम मूल

मेरे मन के सैकडो द्वारों से
असंख्य ध्वनियाँ
मुझ - तक आती हैं ..
लौट जाती हैं !
मैं चिपका रहता हूँ ' अविचल '
अपने क्रत्रिम मूल से

' प्यास ' जो प्रतिपल लगती है
बुझ जाती है,
ओस और आंसुओ की
दो चार बूंदों से ,

सोचता हूँ ...
बन जाऊं ' मरुथल ',
जहाँ ' प्यास ' अतृप्त ही
आजीवन
भटकती रहे ,
जहाँ कोई ' बदली ' आये
गरजे, ललचाए
उड़ जाये,

मैं चिपका रहता हूँ ' अविचल '
अपने क्रत्रिम मूल से
सोचता हूँ
मर जाये ' प्यास ',
दम तोड़ दे
सभी लौकिक और परलौकिक ' आस '
शायद,
तभी होगा आभास ' उसका ',
मिलन की ' प्यास ' फिर सताएगी
अपने यथार्थ - मूल से ,

मैं चिपका रहता हूँ ' अविचल '
अपने क्रत्रिम मूल से .......
चुभ रहे हैं इछाओं के कंटक सूल से
मैं चिपका रहता हूँ ' अविचल '
अपने क्रत्रिम मूल से


चुभ रहे हैं इछाओं के कंटक सूल से
मैं चिपका रहता हूँ ' अविचल '
अपने क्रत्रिम मूल से .......


राजीव ' साकृत्यायन '







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