Friday, September 27, 2013

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रचना
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शब्द पार्थिव सो रहा है
कुछ सहमकर 'सत्य ' कैसे रो रहा है

आशपूरित लालिमा अब कालिमा है
यह चतुर्दिक हो रहा है

है नहीं कुछ प्रकट !
है नहीं कुछ प्रकट !

हा तमारस व्याप्त घन में करुण क्रंदन विकट
 
कुछ थके से पद निरंतर बढ़ रहे हैं
'शुन्य पर गढ़ रहे हैं "
'शुन्य पर गढ़ रहे हैं "


-------------------------------------------------राजीव " सांकृत्यायन"